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________________ २५२ जिनवाणी लकड़ी उसे चलाती नहीं, केवल उसके चलनेमें सहायता देती है । यदि लकड़ी क्रियाशील कर्ता होती तो वह अचेतन और निद्राग्रस्त व्यक्तिको भी चलाती । अत एव अन्धकी गतिमें लकड़ी उपग्राहक है । और दृष्टिके व्यापारमें प्रकाश सहायक है, देखने की शक्ति आंख ही है, प्रकाश दृष्टि शक्तिका उत्पादक नहीं है। प्रकाश यदि क्रियाशील कर्ता होता तो वह • अचेतन और सुप्त व्यक्तिको भी दर्शन कराता । अत एव दृष्टि-व्यापारमें प्रकाश उपग्राहक है। वे कहते हैं कि, "ठीक इसी प्रकार जीव और जड पदार्थ स्वयमेव ही गतिमान अथवा स्थितिशील होते हैं। उनके गति और स्थिति व्यापारमें धर्म और अधर्म, उपग्राहक अर्थात् निष्क्रिय हेतु हैं। वे उस गति या स्थितिके 'कर्ता' या उत्पादक नहीं हैं । धर्म और अधर्म यदि गति और स्थितिके कर्ता होते तो गति और स्थिति असंभव हो जाते।" धर्म और अधर्मको सक्रिय द्रव्य रूप माननेसे जगतमें गति और स्थिति असम्भव क्यों हो जाती, इस वातका भी प्रतिपादन किया गया है। धर्म और अधर्म सर्वव्यापक तथा लोकाकाशमें सर्वत्र व्याप्त है । अत एव जब जब धर्म किसी वस्तुको गतिमान करता तब तब ही अधर्म उसे रोक देता । इस प्रकार जगतमें स्थिति असंभव हो जाती। इसी लिये अकलंक देव कहते है कि, यदि धर्म और अधर्म निष्क्रिय द्रव्यके अतिरिक्त कुछ और होते तो जगतमें गति और स्थितिका होना असंभव हो जाता। गति और स्थिति जीव और जड़ पदार्थोंकी क्रियासापेक्ष है। धर्म और अधर्म गति और स्थितिके सहायक हैं और एक प्रकारसे धर्म तथा अधर्मके कारण ही गति और स्थिति संभवित होती है। यहां पर हम ज़रा आगे बढ़कर क्या यह नहीं कह सकते
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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