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जैन दर्शनमें धर्म और अधर्म तत्व अत एव कह सकते है कि, धर्मके कारण ही लोकाकाश अथवा नियमबद्धविश्वका होना संभव हुवा है। ऐसा होते हुए भी यहां पर यह बात याद रखनी चाहिये कि, धर्म गतिमें सहायक कारण के सिवा
और कुछ नहीं है । पदार्थ स्वयमेव ही गतिमान अथवा स्थितिशील होते हैं और किसी भी स्थितिशील पदार्थको धर्म चला नहीं सकता। यही कारण है कि विश्वके पदार्थ निरन्तर चलते फिरते दिखलाई नहीं देते । यह कहा जा सकता है कि विश्वमें जो नियम अथवा शृङ्खला (व्यवस्था) प्रतिष्ठित हो रहे हैं उनका एक कारण है।
_ अध्यापक शीलके मतानुसार धर्म गतिका सहायक कारण तो है ही, पर वह " इससे भी कुछ और अधिक है" । वे कहते है" वह इसके अतिरिक्त कुछ और भी है, वह नियमवद्ध गतिपरंपरा (System of movements) का कारक अथवा कारण है, जीव और पुद्गलकी गतिमें जो श्रृंखला ( Order ) वर्तमान है उसका कारण धर्म ही है। " उनके मतानुसार धर्म, लाइब्नीट्स प्रतिपादित प्रथमसे नियत व्यवस्था (Pre-established harmony) से कुछ कुछ मिलता जुलता ही है। प्रभाचन्द्रकी " सकृद्गति युगपद्भावि गति" इस युक्ति पर वह अपना मतवाद स्थापित करता है । वस्तुओंकी गतियोंमें जो श्रृंखला या नियम देखा जाता है उसका कारण धर्म ही है, ऐसा प्रभाचन्द्रका वास्तविक अभिप्राय है या नहीं इसमें सन्देह है। उक्त श्रृंखलाके कारणोंमें धर्म भी एक है, यह बात स्वीकार्य है, परन्तु वस्तुओंको श्रृंखलावद्धगतिमें धर्मके अतिरिक्त अन्य कारणोंकी भी आवश्यकता होती है; यह बात भी स्वीकार करनी पड़ेगी। सरोवरमें