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________________ जैन दर्शनमें धर्म और अधर्म तत्त्व [धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय सम्बन्धी यह लेख श्री भाचार्यजीने वगीय साहित्य परिपद् पत्रिका पु. ३४ अक २ में प्रकाशित किया था। इसमें अनेक विरोधी दलीलोंकी समीक्षा की है एवं तर्कसे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके स्वतन्त्र अस्तित्वकी स्थापना करनेका प्रयत्न किया है। उस रेखका अनुवाद, गुजरात महाविद्यालयके अध्यापक श्री नगीनदास पारेखने जैन साहित्य सशोधकमें छपाया था, जो यहा उद्धत किया जाता है। --श्री सुशील] (१) धर्म साधारणतः धर्म शब्दका अर्थ पुण्यकर्म अथवा पुण्यकर्मसमूह होता है। भारतीय वेदमार्गानुयायी दर्शनामें कही कहीं धर्मशब्दमें नैतिकके अतिरिक्त अर्थका आरोपण भी किया गया है। ऐसे सभी स्थानोंमें धर्मगव्दका अर्थ वस्तुकी प्रकृति, स्वभाव या गुण होता है । बौद्ध दर्शनमें भी धर्मशब्दका प्रयोग नैतिक अर्थमें प्रयुक्त मिलता है। किन्तु बहुतसे स्थानोंमें 'कार्यकारणशृङ्खला, 'अनित्यता, आदि किसी विश्वनियम या वस्तुधर्मको प्रकट करनेमे भी इसका प्रयोग हुवा है। परन्तु जैन दर्शनको छोडकर अन्य किसी भी दर्शनमें धर्मको एक अजीव पदार्थरूप नहीं माना गया।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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