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जिनवाणी
पर आरूढ होते हैं। जिनका चारित्रमोहनीय कर्म उपशान्त हो गया है वे उपशान्तमोह - यारहवें - गुणस्थानमें होते हैं । जिनका मोह सर्वथा नष्ट हो चुका है वे क्षीणमोह अर्थात् बारहवें गुणस्थान में विराजमान होते हैं। तथापि कर्मका परिवल ऐसा है कि इन सूक्ष्म संपराय, उपशांतमोह और क्षीणमोह साधकोंको भी अचेल, अरति, स्त्री, नैपेधिकी, आक्रोश, याचना, सत्कार - पुरस्कार और अदर्शनके अतिरिक्त शेष १४ प्रकारके परिसह सहन करने पड़ते हैं । जो पुरुषप्रवर चार प्रकारके घाती कर्मका समूलोच्छेद करके निर्मल केवलज्ञानका अधिकारी होता है वह 'जिन' अथवा अर्हत - सर्वज्ञ अर्हत - १३वें गुणस्थान पर पहुंच जाता है। जैन शास्त्र उन्हें “ईश्वर " के नामसे भी पुकारते हैं । ऐसे महापुरुषको भी भूख, प्यास, ठंड, धूप, दंशमशक, चर्या, शैय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ११ परिसह व्यक्त रूपसे नहीं तो अव्यक्त रूपसे (नाम मात्रको ) रहते हैं ।
केवल सिद्धके जीव ही परिसहसे दूर हैं। इन्हें कर्म स्पर्श नहीं कर सकता । लोकाकाशकी उच्चतम सीमा पर निर्मल सिद्ध शिला है । इस शान्तिमय स्थानमें रहकर सिद्ध अनन्त चतुष्टयमें रमण करते हैं, अनंतकाल तक रहते है। वहां न कर्म है, न बंध है, न संसार है और न परिसह है ।
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यहां मैने कर्मका जो जैनागमसंमत विवरण दिया है वह शायद कुछ लोगोंको नीरस प्रतीत होगा । यह नीरस भले मालुम हो, पर जैनोंके कर्मसिद्धांतके मूल सूत्रोंके साथ किसी भी भारतीय दर्शनको मतभेद हो ऐसा प्रतीत नहीं होगा। रागद्वेषादि विभावोंके कारण जीव