________________
जैनोंका-कर्मवाद
२३३ कर्मका प्रदेशवन्ध आकाशका जो छोटेसे छोटा अंश एक परमाणुसे व्यात रहता है उसे प्रदेश कहते है । जैनाचार्य कहते है कि लोकाकाशके ऐसे एक प्रदेशमें एक साथ एक पुद्गल परमाणु, एक धर्मद्रव्या प्रदेश, एक अधर्म द्रव्यका प्रदेश, कालका एक छोटेसे छोटा अणु और जीव प्रदेश रह सकता है। कर्म-पुद्गल और जीव-द्रव्य इस प्रकार संमिश्रित रहते है। अनादि कालसे जीव बद्धकर्ग है । यह जिनसिद्वान्त है। स्पष्ट शब्दोंमें कहें तो कर्मपुद्गल जीवद्रव्यके साथ जीवके हर एक प्रदेशमें संमिश्रित होकर उसे (जीवको) बद्ध अवस्थामें रखता है, जीवके विशुद्ध ज्ञानदर्शनादि निर्मल गुणोको ढक देता है। यही कारण है कि जीव अनादि कालसे दुःख-मोहमय इस संसारमें परिभ्रमण करता है। इसका नाम प्रदेशबन्ध है
चार प्रकारके बन्ध होनेसे, कर्मके भी चार प्रकार कहे गये है। अव आठ प्रकारके कर्मके आश्रव-कारण और कर्मके विपाकके बारेमें विचार करना चाहिये--
कर्मके आश्रव-कारण ऊपर कहा गया है कि, जीवके विभावके कारण जीवमे कर्मका आसव होता है-कर्मका आगमन होता है। (कर्मके आश्रवके पश्चात् जो आश्रवित कर्म जीव-प्रदेशके एक क्षेत्रमें अवगाहना करता है-एकत्र रूपेण रहता है उसे बन्ध अथवा कर्मबन्ध कहा जाता है।) किस प्रकारके विभावसे जीवमें किस प्रकारका आश्रव होता है, यह बात यहां संक्षेपमें कह देता हूं