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________________ १९४ जिनवाणी प्रिन्सेपका यह अर्थ बिल्कुल समझमें नहीं आता। परन्तु इसके वादके पण्डितोंने इसका अर्थ इस प्रकार किया है "राष्ट्रिकों और भोजगणने उसकी आधीनताका स्वीकार किया। नन्दराजाके वाद १०३ बरस तक वन्द पड़ी रही पानीको नहरको उसने अपने राजत्वके पंचम वर्षमें सुधरवाकर, तनसुल्यके मार्गसे नगरके बीचमें जारी की।" (७) __"अनुगह अनेकानि सतसहसानि विसजति पोरं जानपद | सतम च वस पसासतो वजिरघरव[ ]ति घुसितपरिनीस [मतुकपद ] पुनाति कुमार]......। अठमे च वसे महता सेना......गोरघगिरि" प्रिन्सेप इसके विषयमें सिर्फ इतना ही कहते हैं कि " उसने लाखों अनुग्रह किये।" आधुनिक पण्डित इसका इस प्रकार अर्थ करते हैं: "राजत्वके छठे वर्षमें उसने शहर और देश के निवासियों पर 'लाखों अनुग्रह किये।.... आठवें वर्ष में उसने मगध पर चढ़ाई की और गोरखगिरि तक पहुंचा।" (८) "घातापयित राजगह उपपीडापयति । एतिन च क मापदानसनादेन सवितसेनवाहनो विपमुचितु मधुर अपयातो यवनराज डिमित...(मो.) यछति (वि)...पलव..." ___"जिस राजाको उसने नष्टभ्रष्ट किया उसे गुफामें बन्द कर दिया। हत्यारोंको भी उसने सत्कर्मरत किया।.... मधुर वचन और विनयादिका उपयोग करता था।" यह अर्थ भी त्रुटित है। प्रिन्सेप इससे अधिक कुछ भी निश्चय
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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