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जिनवाणी
, मृत्युके समय वनघोषने आर्त्त-रौद्र ध्यान न किया। इस व्रतके प्रतापसे वह आठवे-सहस्रार स्वर्गमें देव हुवा। वहां उसने १७ सागरोपम अति सुखविलासमें बिताए। देवके भवमें भी वह इस, व्रतकी महिमा न मूला । वह मानता था कि यह सव पुण्यकी ही महिमा है। देवभवमें भी वह रोज चैत्यालयमें पूजा-भक्ति करता और महामेरु नंदीश्वर आदि द्वीपोंमें जाकर भगवानकी प्रतिमाको वंदन करता था।
देवोंकी भी. मृत्यु तो होती ही है। सतरह सागरोपमके अन्तमें उसकी देवलीला समाप्त हुई।
पूर्व महाविदेहमें, सुकच्छ नामक विजयमें वैताढ्य पर्वत पर तिलकपुरी नामक नगरी है। वहांके राजाका नाम विद्युद्गति और रानीका नाम तिलकावती हैं। उन्हें एक सुन्दर पुत्ररत्न प्राप्त हुवा । महापुरुषोंने कहा: " अष्टम देवलोकका देव ही यहां राजपुत्रके रूपमें अवतरित हुवा है।" इसका नाम किरणवेग रक्खा गया।
बाल्यावस्थासे ही वह धर्मपरायण रहता था। पिताके पश्चात् किरणवेग सिंहासनारूढ हुवा । भरपूर समृद्धिशाली होने पर भी महाराज किरणवेगने धर्माचरणको नहीं भुलाया। ; एक दिनः विजयभद्र नामक आचार्य उस नगरमें पधारे। राजा किरणवेमने उनसे मोक्षमार्गका उपदेश श्रवण क्रिया। उसके विवेकचा खुल गए और संसार विषयक रुचि भी उसी दिन जाती रही। गुरुके पास दीक्षा लेकर उसने उग्र तपश्चर्या करना प्रारम्भ किया रागद्वेष क्षीण होने लगे।