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जिनवाणी
श्रेणीके देवोंको किल्बिषिक कहते हैं।
नीचे रहनेवाले समूहसे ऊपर रहनेवाला देवसमूह क्रमशः तेज, वर्ण (लेश्या), आयु, इन्द्रियज्ञान, अवधिज्ञान, सुख और प्रभावमें विशेष उन्नत होता है। ज्यों ज्यों उच्च देवलोकमें जाय त्यों त्यों उनका मानकषाय, गति, देहप्रमाण और परिग्रह भी न्यून होते हुवे दिखलाई देते है। देवयोनिमें जन्म होना जीवके पुण्यके आश्रित है। भवन, व्यंतर
और ज्योतिष्क देवोमें कृष्ण, नील, कापोत और पीत-ये चार वर्ण होते है। सौधर्म और ईशान कल्पमें केवल पीतवर्ण होता है। तीसरे और चौथे स्वर्गके देवोंका वर्ण कुछ पीत और पद्माभ होता है। पञ्चमसे अष्टम कल्प तकके देवोंका वर्ण पन्नाभ, नवमसे द्वादश देवलोक तकके देवोका वर्ण पद्माभ और शुक्लाभ एवं इससे ऊपरके देवलोकवाले देवोंका वर्ण शुक्ल होता है।
देव कोई मुक्त जीव नहीं होते। सिर्फ इतना ही कि, शुभ कर्मक योगसे वे उत्तम प्रकारका सुख भोग सकते है। जन्म और मृत्युका चकर तो वहां भी है। किसी किसी बातमें तो वे भूलोकवासी मनुष्योंके समान ही होते है। इन्हे भी उत्तम वस्तुओंसे प्रेम और नापसन्द वस्तुओसे अप्रीति होती है। मनुष्यके समान देवोमें भी विषयवासना होती है। कितनी ही बातोंमें वे मनुष्योंसे भिन्न है। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और सौधर्म तथा ईशान कल्पके देवोंमें मनुष्य तथा तिर्यचके समान शरीरसंयोग पूर्वक रमणक्रिया होती है। तीसरे और चौथे स्वर्गके देव रमणीका केवल आलिंगन करते है। पांचवेसे आठ में स्वर्ग तकके देव, देवियोंके रूपदर्शनमें ही विषय सुखका अनुभव करते है। नवम,