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जिनवाणी उदय क्षीण हो जाने पर भी-जीव पूर्णतः संयत हो जाय तोभी- उसमें भी प्रमाद रह जाय यह 'प्रमत्तसंयत' नामक छठा गुणस्थान है। इसके पश्चात् संज्वलन नामक कपाय नष्ट होने पर (मन्द होने पर) पूर्णसंयत जीव प्रमादके चंगुलसे छुटकारा पा जावे तो वह 'अप्रमत्त' नामक सप्तम गुणस्थानको प्राप्त होता है। मोक्षमार्गका यात्री क्रमशः अपूर्व शुल ध्यानको प्राप्त करके विशुद्धिको प्राप्त करे, यह 'अपूर्वकरण' गुणस्थान है। यह अपूर्व शुक्ल ध्यान खूब खूब वढता हुआ जब मोहकर्म-समूहके स्थूल अंगोंको क्षीण कर देता है तब जीव अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान पर जा पहुंचता है। इस प्रकार कपायोंको हल्का करता हुवा जीव सूक्ष्मकषाय गुणस्थानको प्राप्त करता है । सर्व प्रकारके मोह उपशांत होने पर जीव जिस गुणस्थानको प्राप्त करता है उसका नाम उपशांतकपाय है। मोहसमूहके पूर्णतः क्षय होने पर जीव बारहवें गुणस्थानको प्राप्त होता है, जिसका नाम क्षीणकषाय है। इसके पश्चात् चार प्रकारके घाति कर्म नष्ट होने पर जीवको निर्मल केवलज्ञान प्राप्त होता है। यह सयोगकेवली नामक तेरहवां गुणस्थान है। सर्व प्रकारके कर्मीका क्षय होनेसे पूर्वकी, अत्यल्प क्षण व्यापी जो अवस्था वह चौदहवां गुणस्थान है। उसे अयोगकेवली कहते है। यहां पहुंचकर कर्मसंबन्ध पूरा हो जाता है।।
संसारी जीव उपरोक्त चतुर्दश गुणस्थानोंमेंसे किसी न किसी एक स्थानमें होता है।
चतुर्दश गुणस्थानोंसे भी पर जो अनन्त सुखमय, अनिर्वचनीय अवस्था है वही मुक्तावस्था है। समस्त कौक संस्पर्शसे अलग होकर