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________________ जीव १२३ माना जाए तो फिर उसकी विविधताको स्वीकार करनेकी आवश्यकता नहीं रहती । न्यायाचार्य कहते है कि, यदि आत्मा व्यापक पदार्थ न हो तो अनन्तदिग्देशवर्ती उपर्युक्त परमाणुओके साथ उसका संयोग संभव नहीं और इस प्रकारका संयोग संभव न हो तो फिर शरीरकी उत्पत्ति भी. संभव नहीं । इसका उत्तर जैन इस प्रकार देते है कि, परमाणुसमूहको आकर्षित करनेके लिये - मिलानेके लिए आत्माको व्यापक पदार्थ होना ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है। चुंबककी ओर लोहा आकर्षित होता है, परन्तु इससे हम उसे व्यापक पदार्थ नहीं मान लेते । कदाचित् आप आपत्ति लेंगे कि, ऐसे आकर्षणसे तो तीन लोकके परमाणु आत्माकी ओर खिंच आयेंगे, फिर शरीरका प्रमाण किस प्रकार बनेगा ? यदि. शरीरप्रमाण अनिश्चित ही रहे तो आपके व्यापकवादमें भी यही आपत्ति आएगी। समस्त परमाणुओं में व्याप्त आत्मा समस्त परमाणुओं को खींचे तो अन्तत यही स्थिति होगी। यदि आप यह कहते हों कि अदृष्टके प्रतापसे शरोरोत्पत्तिके उपयोगी परमाणु ही आकर्षित होते हैं तो यही बात आत्माकी अव्यापकताको माननेवाले भी कहेंगे । 3 जैनसम्मत शरीरपरिमाणवादके विषयमें नैयायिक एक और आपत्ति करते हैं कि, यदि यह माना जाय कि आत्मा शरीरके प्रत्येक अवयवमें प्रवेश करता है तो शरीरके समान आत्माको भी सावयव मानना पड़ेगा । आत्मा सावयव हो तो वह एक 'कार्य' हुवा और आत्मा कार्य हुआ तो फिर उसका कोई न कोई कारण भी अवश्य ही होना चाहिये । वह कारण विजातीय तो हो ही नहीं सकता, क्यों कि
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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