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________________ जीव ११५ होती ही है । अत एव आत्माका अकर्तृत्व हमारे अनुभव के विरुद्ध है। ____ आप कहेंगे कि " मै सुनता हूं, मै सूंघता हूं" इस प्रकारकी प्रतीति तो अहंकारसे उत्पन्न होती है, परन्तु आप स्वयं ही इस बातसे इन्कार करते है । आप सांल्यवादी लोग अनुभवको पुरुषकार्यरूप तो कहते ही हैं, अनुभवको अहंकारप्रसूत नहीं मानते। इस प्रकार आप पुरुषके कर्तृत्वको मान लेते हैं। ___ सांख्य कहते है कि, पुरुष स्वभावतः भोक्ता नहीं है; केवल उसमें भोक्तृत्वका आरोपण किया जाता है। क्यों कि जितना सुखदुःख है वह बुद्धि द्वारा ग्रहण किया जाता है और बुद्धि तो प्रकृतिकी है। अत एव "पुरुष सुख-दुःखका भोक्ता है" यह कल्पनामात्र है। प्रकृतिपरिणामवाली बुद्धिमें सुख-दुःख संक्रांत होता है और शुद्धस्वभावी पुरुषमें इस सुख-दुःखका प्रतिबिम्ब पड़ता है। जैन इसका उत्तर देते हैं कि, पदार्थका एक परिणाम अर्थात् विकृति स्वीकार करो, वरना इस प्रतिविम्बका उदय भी असम्भव हो जायगा। सटिकमें जो प्रतिविम्ब पड़ता है उससे स्फटिकका परिणाम मानना पडता है। अब यदि पुरुषों सुख-दुःख प्रतिविम्बित होता हो तो उसके द्वारा पुरुषमें एक प्रकारका परिणाम होता है, अर्थात् उसमें कुछ अंशोंमें भोक्तृत्व है, यह स्वीकार करना पड़ता है। और परिणाम होनेसे उसके कतृत्वका स्वीकार किये बिना नहीं चलेगा। यही कारण है जिससे जैन जीवको कर्ता और साक्षात् भोक्ता मानते है। आत्माको गुणाश्रयरूप मानते हुवे भी जैन मत न्यायमतसे कुछ भिन्न है। नैयायिक आत्माको (१) जड़स्वभाव, (२) कूटस्थ नित्य और (३) सर्वगत मानते है । जैन दार्शनिक यहां अलग पडते है।।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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