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________________ --"जिनवाणी" मासिक पत्र दीर्घायु प्राप्त न कर सका, अत एव भट्टाचार्यजीके लेख भी अधूरे ही रह गए, यह खेदकी बात है। जैनेतर जिज्ञासु जैन दर्शनको किस श्रद्धाकी दृष्टिसे देखते है यह बात इन लेखोंसे प्रकट होती है। -~-बनारस हिन्दू युनिवर्सिटीकी जैन व्यास पीठ (चेअर) के अध्यक्ष श्रीमान् पंडित सुखलालजीको कुछ लेख संशोधनकी दृष्टि से दिखला लिए गए हैं, और यथेष्ट अवकाश न होते हुवे भी उन्होंने इन लेखोंको पढ़ा और निदर्शन भी लिख भेजा है। ___-श्री. पं. सुखलालजी, पूज्य मुनिराज दर्शनविजयजी, श्री. पं. भगवानदासभाई एवं श्री. हीराचन्द्रभाईने परामर्श और सूचना देने तथा टिप्पणी आदि लिखने एवं प्रूफ-संशोधन आदिमें जो सहयोग दिया है उसके लिए इन सज्जनोंका मैं अन्तःकरणसे आभार मानता हूं। -ऊंझा-निवासी वैद्यराज श्री. नगीनदासभाईने पुस्तक प्रकाशनकी समस्त व्यवस्था कर दी और मुझे प्रोत्साहित किया। इसके लिये उनका भी ऋणी हूं। इस पुस्तकमें जो दोष रह गए हों, उनकी सूचना जो सजन देंगे उनका मै कृतज्ञ हूंगा, एवं यदि दूसरी आवृत्तिका शुभावसर प्राप्त होगा तो उन दोषोंकी पुनरावृत्ति नहीं होने दूंगा। पुनव-- [हिन्दी संस्करणके अवसर पर] जिस समय मेरा स्वास्थ्य अच्छा था उस समय आवश्यक साहित्य-प्रवृत्तिके अतिरिक्त बंगला लेखोंका गुजराती भाषामें अनुवाद
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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