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जैन विज्ञान
स्मरणका विषय अथवा Idea केवल मरणोन्मुख इन्द्रियज्ञान है Nothing but decaying sense | Hume भी यही मानता है। दार्शनिक Reid इस सिद्धान्तका उत्तम रीति से खण्डन करता वह कहता है कि स्मरणके विपयको इन्द्रिय-ज्ञान-विषयकी अपेक्षा अवश्य है और उसमें सादृश्य भी है, तथापि कितने ही अंशोंमें यह विषय नवीन है । ऐसा मालम होता है कि जैन पण्डितोंने हजारों वर्ष पूर्व स्मृतिज्ञानके विषयमें जो निर्णय किया था उसीका ये वैज्ञानिक मानों अनुवाद कर रहे है; और यह कुछ कम आश्चर्यकी बात नहीं है।
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संज्ञा
संज्ञाका दूसरा नाम प्रत्यभिज्ञान है । पाञ्चात्य मनोविज्ञानमें इसे Assimulation, Comparison और Conception कहते हैं । अनुभूति अथवा स्मृतिकी सहायतासे विषयकी तुलना या संकलना 'द्वारा ज्ञान संगृहीत करनेको प्रत्यभिज्ञान कहते है । इस प्रत्यभिज्ञानकी सहायतासे चार प्रकारका ज्ञान प्राप्त हो सकता है - (१) गवय (नीलगौ) नामक प्राणी गाय जैसा होता है। अंग्रेजीमें इस ज्ञानको Association by similarity कहते हैं । (२) भैस नामक प्राणी गायसे भिन्न प्रकारका होता है अर्थात् Association by Contrast | गो-पिंड अर्थात् गाय-विशेषको देखनेसे गोत्व अर्थात् गो-सामान्य विषयक ज्ञान होता है । इस सामान्य ज्ञानको अंग्रेजीमें Conception कहते हैं । भिन्न भिन्न विषयोंके सामान्यको जैन दर्शनमें तिर्यक् सामान्य कहा है। इसका पाश्चात्य नाम Species idea है । (४) एक ही पदार्थकी भिन्न भिन्न परिणति में भी उसी एक एवं अद्वितीय पदार्थकी उपलब्धि होती