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________________ जैन विज्ञान ज्ञानानुभूति । स्थावर जीव-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और चनस्पतिके जीव-केवल कर्मफलकी अनुभूति करते है । त्रस जीव-दो, तीन, चार और पांच इंद्रियवाले जीव-अपने कार्यका अनुभव करते है। उच्च प्रकारके जीव ज्ञानके अधिकारी होते हैं । चेतनाके इन तीन प्रकार अथवा पर्यायोंको पूर्ण चैतन्यके क्रमविकासकी तीन मंजिले कहें तो अनुचित न होगा। जो लोग कहते है कि मनुष्यसे मिन्न जीव केवल अचेतन यंत्रके समान है उनका खंडन जैनोंने हज़ारों वर्ष पहिले किया है। आधुनिक युगमै क्रमविकासमय मनोविज्ञान Evolutionary Psychology के जो दो मूल सूत्र माने जाते है वे पहिलेसे ही जैन दर्शनमें मौजूद थे। वे दो सूत्र ये है --(१) मनुष्यसे मिन्न-निकृष्ट कोटिके-प्राणियोंमें एक प्रकारका -बिल्कुल नीची कोटिका-चैतन्य Sub-human consciousness होता है । इसी चैतन्यमेंसे मानवचैतन्यका क्रमशः विकास होता है। (२) प्राण और चैतन्य Life and consciousness सर्वथा सहगामी होते है; Co-extensive है । उपयोग . जीवका दूसरा विशिष्ट लक्षण उपयोग है। उपयोगके दो भेद है : एक दर्शनोपयोग और दूसरा ज्ञानोपयोग । दर्शन रूपादि विशेष ज्ञान वर्जित 'सामान्यकी अनुभूतिको दर्शन कहते है । दर्शनके चार भेद है -(१) चक्षुदर्शन, (२) अचक्षुदर्शन, (३) अवधिदर्शन और (४) केवलदर्शन । चक्षु संवन्धी अनुभूतिमात्रका नाम चक्षुदर्शन है । शब्द, रस, स्पर्श और गन्धकी
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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