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________________ जैन विज्ञान ८३ - प्रथम Parmenides, Zeno आदि दार्शनिक धर्म अथवा Principle of motion को स्वीकार नहीं करते थे, परन्तु बादमें न्यूटन आदि विद्वानोंने गतितत्त्वके सिद्धान्तकी स्थापना की है। ग्रीसके Heraclitus आदि दार्शनिक ' अधर्म-तत्त्व ' माननेसे इन्कार करते थे, परन्तु बादमें Perfect equilibrium में अधर्मतत्त्व - नामांतरसे हो सही - स्वीकार कर लिया गया। केंट और हेगल आकाश तत्त्वको एक मानसिक व्यापार कहकर बिल्कुल ही उडा देना चाहते थे । परन्तु उसके बाद रसेल जैसे आधुनिक दार्शनिकोंने Space (आकाश) की तात्त्विकताको स्वीकार कर लिया । आकाश एक सत् एवं सत्य पदार्थ है, इस बातको अधिकांशमें Einstein भी मानता है । आकाशके समान ही कालको भी एक मनोव्यापार कहकर कुछ लोगोंने उड़ा 'देने की कोशिश की थी, परन्तु फ्रांसका एक सुप्रसिद्ध दार्शनिक Bergson तो यहां तक कहता है कि काल वास्तवमें एक Dynamic reality है । कालके प्रबल अस्तित्वको स्वीकार किये बिना काम ही नहीं चल सकता। उपरोक्त पांच प्रकारके अजीव पदार्थोंके साथ जो तत्व कर्मवशजकड़ा हुवा है उसका नाम जीव है। जीव 1 'जैन दर्शनका जीवतत्त्व वेदान्त दर्शनके ब्रह्मसे पृथक् है । ब्रह्म एक और अद्वितीय है, परन्तु जीवोंकी संख्या अनन्त है। यह जीवतत्त्व सांख्यके पुरुषसे भी भिन्न है, क्यों कि यह नित्यशुद्ध और नित्यमुक्त नहीं है, बल्कि बंधनग्रस्त है । यह जीवतत्व न्याय और वैशेषिक दर्शनके आत्मासे भी भिन्न है, क्योंकि वह (जीवतत्त्व) जड़ नहीं है, साक्षात् •
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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