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जैन विज्ञान
७२ करण शाकटायन अथवा जैनेन्द्रका नाम व्याकरणका कौन विद्यार्थी नहीं जानता ? महाराज विक्रमादित्यकी राजसभाके नवरत्नोंमें एक रत्न जैनधर्मावलम्बी था ऐसा अनुमान हो सकता है। अभिधानप्रणेताओंमें श्री हेमचन्द्राचार्यका स्थान बहुत ऊंचा है। दर्शनशास्त्रमें, गणितमें, ज्योतिपमें, वैद्यकमें, काव्यमें और नीतिशास्त्र आदिमें जैन पण्डितोंने जो भाग लिया है-नये नये तथ्य प्रकट किये है - उनकी गणना करना सहज कार्य नहीं है।
यूरोपके मध्यकालीन लोक-साहित्यका मूल भारतवर्ष है और भारतवर्षमें सर्वप्रथम लोकसाहित्यकी रचना जैन पण्डितोने की है। जैन त्यागी पुरुप महान् लोक-शिक्षक थे।
शिल्प और स्थापत्यमें भी जैन अग्रगण्य थे। कोई भी तीर्थ इस वातकी साक्षी दे सकता है। इलोरा जैसे रथानोंमें आज भी जैनोंकी कलाकरामतके भग्नावशेष देखे जा सकते हैं । आबु और शत्रुजयके मन्दिर किस कलाप्रेमीको मुग्ध नहीं करते। आज भी दक्षिणमें गोमटेश्वरकी मूर्ति कालकी क्रूरताका हास्य करती हुई प्रतीत होती है। इस सम्बन्धमें इम्पीरीयल गेजीटीयर आफ इंडिया लिखा है--- These Colossal monolithic nude Jain statues......are among the wonders of the world..." जगतमें यह एक आश्चर्य है।
इसके अतिरिक्त विधर्मियोंके युग-युगव्यापी अत्याचारों, परिवर्तनों, अग्नि और भूकम्पके उपद्रवोंसे बचे हुवे जो नमूने आज मिलते है उनसे यह सिद्ध होता है कि उच्च सभ्यताके लगभग सभी क्षेत्रोंमें जैनोंने उन्नति की थी।