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________________ ६८ जिनवाणी मनुष्य चोरी करे तो वह चोरीके प्रतापसे, चोरीके फलस्वरूप, स्वयं चोर बन जाता है। न्याय मतानुसार चौर कर्मक साथ ईश्वर चौर भाव अर्थात् चोरीके फलका सम्बन्ध स्थापित करता है। वौद्ध दर्शन कहता है कि, चौर कर्म ही चौर भावकी उत्पत्ति करता है । चोरी एक विज्ञान है। उत्पत्तिके दूसरे क्षण ही यह विज्ञान, सतत एकरूप प्रवाहित विज्ञानप्रवाहमें मिल गया; चौर कर्मरूपी संस्कार शेष रह गया; इस संस्कारमेसे दूसरे ही क्षण विज्ञानकी उत्पत्ति हुई। यह चौर भाव इस दूसरे क्षणका विज्ञान। सारांशतः पूर्व क्षणका विज्ञान चौर कर्म, पर क्षणके विज्ञान चौर भावका उत्पादक हुवा। संक्षेपमें वौद्ध दर्शनका सिद्धान्त इतना ही है कि, कर्मको केवल पुरुषकृत कर्म ही न समझना चाहिये; कर्मक कारण ही संसार-प्रवाह प्रवाहित है। फलके सम्बन्धमें कर्म पूर्ण स्वाधीन है। उसमें ईश्वर या किसी अन्यके हस्तक्षेपको आवश्यकता नहीं है। बाह्य दृष्टिसे बौद्ध और जैन दर्शनमें कर्मकी प्रकृति और व्यापारके विषयमें अधिक मेढ दिखलाई नहीं देता। जैन मतानुसार कर्मका अर्थ पुरुषकृत प्रयत्नमात्र ही नहीं है। कर्म एक विराट-विश्वव्यापी व्यापार है। इसीके कारण संसार-प्रवाह प्रवाहित है। फलके विषयमें जैन कहते हैं कि कर्म पूर्ण स्वाधीन है। ईश्वरको वीचमें पड़नेकी आवश्यकता नहीं है। पुरुषकृत कर्म कभी निष्फल होता हुवा प्रतीत हो तो भी ईश्वरको वोचमें फसानेकी आवश्यकता नहीं है। कर्मका फल तो अवश्य ही मिलता है। उसके मिलने में कमी अधिक विलम्ब भी हो सकता है, परन्तु कर्मका फल न मिले यह तो असम्भव है। किसी समय पापी मनुष्य हा तो भी ईश्वरको मिलता है। समावस्यकता नहीं है। क
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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