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जैन पर्शनमें कर्मवाद अनेक वार कर्मके साथ कर्मफलका सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता, इस बातका समाधान करते हुवे उन्होंने कर्म और कर्मफलके वीचमें, कर्मसे पृथक एक अन्य कारण प्रविष्ट कर दिया। उन्हे कहना पड़ा कि- . - ईश्वरः कारण पुरुषकर्माफलस्य दर्शनातू ।
न पुरुषकर्माभावे फलानिष्पत्तेः तत्कारितत्वादहेतुः। -न्यायसूत्र १, १, १९, २१ ।
"कर्मक फलमें ईश्वर ही कारण है। पुरुषकृत कर्म अनेक बार निष्फल होते हुवे देखे जाते है। पुरुषकृत कर्मके अभावमें कर्मक फलको उत्पत्ति नहीं होतो अत एव कर्म ही फलका कारण है- यदि कोई यह कहे तो वह यथार्थ न होगा। कर्मफलका उदय ईश्वराधीन है अत एव यह नहीं कहा जा सकता कि फलका एकमात्र कारण कर्म ही है।"
गौतम-सम्मत कर्मवादके विषयमें इतना तो समझमें आता है कि वे मानते है कि कर्मफल पुरुषकृत कर्भके आधीन है, परन्तु वे यह स्वीकार नहीं करते कि कर्मफलका एकमात्र और अनन्य कारण कर्म ही है। उनके कथनका सारांश यह है कि, यदि कर्मफल एकमात्र कर्मक ही आधीन हो तो फिर प्रत्येक कर्मका फल प्रकट होना चाहिये । यह तो यथार्थ है कि कर्मफल कर्मके आधीन है, परन्तु कर्मके फलका उदय अकेले 'कर्म पर ही निर्भर नहीं है। पुरुषकृत कर्म अनेक बार निष्फल जाते हुवे देखा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि, कर्मफलके विषयमें कर्मसे अतिरिक्त कर्मफल-नियंता एक ईश्वर भी है। यहां पर नैयायिक लोग वृक्ष और वीजका उदाहरण देते है। वृक्ष वीजके आधीन है, यह बात मान ली जा सकती है और इसी प्रकार कर्मफलको कर्मके आधीन मान सकते है,