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चौत्रीशी
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सामि अनंत तुम्हारडारे, गुण अनंत पारी । मुझ जिनहरप संभारी ज्यो,
कांई मत मुकउ वीसारी ॥४वा. ॥
धर्मनाथ - गीतम्
राग-वसत
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भजि भजि रे मन - पनरम जिनंद,
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छेड़े भव भव के निवड फंद भि. ।
जाकु सेवड़ सुरपति सुरनरिंद, पाम दरसण देख्यई याद | उलसे मन जइस चकोर चंद,
काट दुप करम कठोर कंद ॥ १म. ॥ समकित दायक सुखनिधान,
सब प्राणी कुं धड़ अभयदान | अगन्यान मह तेम उदय भान,
ता प्रभु कउ धरीये रिदय ध्यान || २ || लहीये जाथ संसार पार, अविचल सुप संपति देणहार |
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आधार नहीं ताकउ आधार,
जिनहरष नमीजड़ वार वार ||३भ. ।।
शान्तिनाथ - गीतम्
राग - जइतसिरी प्यारु पेमकु, मेरउ साहिब हे सिरताज ॥ प्या. ॥
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