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जिनहर्प-प्रन्थावली
विमलनाथ-गीतम्
राग - पुरवी गउउउ
मेरु मन मोहा, प्रभु की मूरतीयां । सुंदर गुण मंदिर छवि देवत.
उलसत हड़ मेरी छतीयां ॥१ मे. ॥ नयन चकोर वदन शशि मोहे. जातन जाणु दिनरतीयां । प्राण सनेही प्राण पीया की,
लागत हइ मीठी वतीयां ॥ २ मे. ॥ अंतरजामी सब जागत हइ, क्या लिखि कइ भेजु पतीयां ।
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कहइ जिनहरप विमले जिनवर की,
भगति करू हुं बहुमतीयां ॥ ३मे. ||
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अनन्तनाथ - गीतम्
राग - परजीयउ
वाल्हा थांरा मुखडा ऊपरि चारी । अरज सुणेज्यो एक माहरी,
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कोई तुम न कहुँ छु विचारी ॥१ वा ॥ आठ पहूर ऊमऊ थकउरे, सेवा तमारी । अंतरजामी साहिबा, कांई लेज्यो “खबरी हमारी ॥ २वा. ||
करू
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सुंदर सूरति ताहरी रे, लागइ पेम पीयारी 1 सात धात भेदी करी, कांई पड़ठी हीया मकारी ॥ ३वां ॥
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