________________
-
चौवीशी
जाउ कहा कहीजे | पदम प्रम जिनहरप तुम्हारी, सोम नजर सु जीजइ || ३ जि. ॥
सुपार्श्वनाथ गीतम्
राग—देवगन्धार
कृपा करी सामि सुपास निवाजउ । तुम साहिब हुँ खिजमतगारी युतउ सगपण भाभौ ॥ १ कृ.॥ तुम ही छोरी अवर सुर ध्याउं, तउ प्रभु तुम ही लाजउं । भगत वछल भगतन के साहिब, ता कारण दुषभाजउं ॥ २कृ. ।। प्रभु मधुकर सब रस के नायक, हिरिदय कमल विराजउं । चरणसरण जिन हरप कीए मड्, भए निरभइ अब गाजरं | ३ |
1
चन्द्रप्रभु-गीतम्
राम- सामेरी
२३
चंद्रप्रभु अष्टकर्म क्षयकारी ।
आप तरे उरनकु तार, अपण्ड विरुद विचारी ॥१ चं ॥ जिन मुद्रा सुप्रसन प्रभुजी की, उलसत नईन निहारी । सुंदर सूरति मूरति ऊपरि, जाउं हु बलिहारी ॥२चं ॥
इसी तनकी छवि त्रिभुवन मइ, अउर किसी नही धारी ।
सास चरण जिनहरप न तजिहुँ, दुखीयनकु उपगारी ॥३चं ॥