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जिनहर्प-ग्रन्थावली
तो भी महिर न आणी हो ॥१मैं।। हिरदै नाम लिख्यौ मति गहिले,
डरपुं पीवत पाणी हो ।मैं। आव न आदर करहुँ न पायौ,
ऐसी मुहब्बत जाणी हो ॥२में.।। सुपने ही ते दरसण न दीयो,
अब तूटेगी ताणी हो मैं.। कह जिनहरख अनंत प्रभु मोकुं दीजै निज सहिनाणी हो ॥३॥ श्री धर्म-जिन-स्तवन
राग-पूर्वी गौड़ी अब मेरो मनरौ प्रभुजी हर लीनौ । सिर पर भुरकी प्रेम की डारी,
मानूं काहु नै कामण कीनो ॥१प्र.।। गति देखि मोहनी लागी,
रोम रोम माई से भीनी । धरमनाय देसत दृग शीतल,
भए जांणि अमृत रस पीनौ ॥२.।। सब नायर में भरना मेरे,
लागौ हाथ नगीनौ ।