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________________ St जिनहर्ष - प्रन्थावली रूप यति सुन्दर ||१ मे. ॥ भूले भरम परे उनमारग, भेद न पावै जे नर । कंचन तजि कै पीतल' लेहै, न भजड़ जे सुरवर || २ मे. || हाजर सेव करै सुर सुरपति, गावै मिलि मिलि पछर । सेवक सनमुख देखौ साहिब, कहै जिनहरख निजर भर || ३ मे. || श्री वासुपूज्य - जिन - स्तवन राग - मारू वासपूज स्त्रांमी सेती, जो मै नेह न मंड्यो री माई वा. तौ मोकु व करुणासागर; निज हाथन सु छंड्यो री ॥१मा.वा. ॥ नव नव वेष धरी चौगति में, बहुत भांति करि मंच्यौ री । कब ही राज रंक भयौ कवही, वही भेप त्रिदंड्यौ री ॥२मा. वा. ॥ हूँ तेरे चरणै आयौं, १ पातर ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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