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जिनहर्ष-ग्रन्थावली
_ चित चकोर सुख दान ॥१दे.।। यह अधिकाई घटत न कबहूँ,
वढत ज्योति असमान । पाप तिमिर चूरन निकलंकित,
मदन विरह अपमान ॥रदे.॥ दुई पख पूरण अस्तंगत कर,
होइ न कला निधान । कहै जिनहरख ईश नट नागर,
करत सदा गुण गान ॥३दे.॥ श्री सुविधि-जिन-स्तवन
राग काफी । मेरा दिल लगा सांई तेरा नाम सुं। और कछु न सुहाये मौक,
चित्त न लागै काम सु॥१मे.॥ राखि राखि निज शरण साहिब,
चीनती करसोरा खाम सु। झटकि छुराइ पाय पर अब,
जनम जरा दुःख वाम सुनारमे।। एक त ही आधार जीड़का,
चाह वरु गुण ग्राम मुं।