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जिनहर्प-ग्रन्थावली
जाकै नाम होइ साता, अन्तर जामी विख्याता,
सुमति को दाता भलो सुमति जिनां ॥१॥स.॥ पंचम जिणंद नीको, सिद्धि वधू सिर टीको,
जग यश प्रभुजी को, त्रय भुवनां । एक तूं मेरइ आधार, कहा कहूं वारवार,
सार करि करतार, लेखवि के अपना ॥२॥ जिंद ते अधिक प्यारो, जाको नाम मंत्र झारौ,
भुजंग संसार चारौ, दूर दुख हरनां । कहै जिनहरख सु, प्रभु के निकट वसु,
वैरादि के राग नसु, मेरे कोऊ कामनां ॥३स.॥ श्री पद्मप्रभु-जिन-स्तवन
राग-कन्हरी पदम प्रभु सूरति त्रिभुवन मोहै। नयन कमल अणियारे ता विच,
तारिका सिली मुख सोहै ॥१५॥ वदन चंद अमित गुण मंगल,
सोह अधिक अधिरोहै। भाव भगति इक चित देखत ही,
कामदुधा परि दोहै ॥२५॥