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नव वॉडिनी संज्मीय
५०१ हंसंगमण कृशं हर कटी रें, करयुगें चरण सरोज रे ॥ २८ ॥ रमणी रूप इस वरणवैरे, आणि विपय मन रंग रें। मुगध लोक नै रीझवै रे, वींधै अंग अनंग रे ॥ २६ ॥ अपवित्र मल नो कोठलो रे, कलह काजल नो ठाम । बारह श्रोत वहै सदा रे, चरम दीवड़ी नाम रे ॥ ३०॥ देह उदारीक कारमी रे, क्षिण में भंगुर थाय । सप्त धात रोगाकुली रे, जतन करता जाय रे ॥ ३१॥ चक्री चोथों जांणीय रे, देवे दीठो आय।। ते पिण खिण में विणसीयो रे, रूप अनित्य कहाय रे ॥३२॥ नारी कथा विकथा कहीं रे, जिणवर वीजे अंग । अनरथदंड अंग सातमें रे, कहै जिनहरख प्रसंग रे॥३३॥
ब्रह्मचारी जोगी जती, न करै नारि प्रसंग । एकण आसण वेसतां, थायै व्रत नो भंग ॥ ३४ ॥ पावक गाले लोहने, जो रहे पावक संग। इम जांणी रे प्राणीया, तज आसण त्रिय रंग ॥ ३५ ॥
ढालं ॥ थे सौदागर लाल चलण न देस्य ॥ तीजि वाड़ि हिवे चित विचारो, नारी संग वैसवो निवारो लाल । एकण आसण कामदीपावै, चौथा व्रत ने दोष लगावे लाल॥३६॥ इम वैसंता आसंगो थावै, आसंगे काया फरसाये लाल।' काया फरस विषय रस जागे, तेहथी अवगुण थाये आगे लाल।३७