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नव वाडनी सज्माय
मन प्राणे तरु रोपियो, बीज भावना वंभ रे । श्रद्धा सारण तिहां वहै, विमल विवेक ते अंभ रे ॥ १० ॥ मूल सुदृष्टि समकित भलो, खंध नवे तत्त दाख रे । साख महात्रत तेहनी, अनुव्रत ते लघु साख रे ॥ ११ ॥ श्रावक साधु तणा घणा, गुण गण पत्र अनेक रे । मौर कर्म शुभ बंधनो, परमल गुण अतिरेक रे ॥ १२ ॥ उत्तम सुर सुख फूलड़ा, शिव सुख ते फल जांण रे | जतन करी वृख राखियो, हीयड़े अति रंग आंण रे ||१३|| उत्तराध्ययनें सोलमें, बंभसमाही ठाण रे । कधी तिण तरु पाखती, ए नव वाडि सुजाण रे ॥ १४ ॥ दूहा
हवि प्रांणी जांणी करी, राखी प्रथम ए वाड़ि । जो ए भांज पैसमि, प्राणै प्रमदा धाड़ि ॥ १५ ॥ जेहड़ि तेहड़ि खलकती, प्रमदा गय मयमत्त | शीयल वृक्ष ऊपाडसी, बाड़ि वीभाड़ि तुरत ॥ १६ ॥
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ढाल - नणदल री
भाव धरी नित पालीजै, गिरुवो ब्रह्मव्रत सार हो भवियण । जिण थी शिव सुख पामीयै, सुन्दर तन सिणगार हो ॥१७॥ स्त्री पसु पंडग जिहां वसै, तिहां रहिवो नहीं वास हो । एहनी संगति वारीयै, व्रतनो करें विणास हो ॥ १८ ॥ मंजारी संगति रमै, कूक्कड़ मूंसक मोर हो । कुल किहां थी तेहने, पामै दुःख अघोर हो ॥ १६ ॥