SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 563
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सगुरु,पचीसी ४६३: सगुरु पचीसी ढाल पक्षमा छत्रीसीनी॥ सुगुरु पीछाणउ इणि आचरण, समकित जेहनुं शुद्ध जी। कहणी करणी एक सरीखी, अहनिसि धरम विलुद्ध जी ।।१।। निरतीचार महाव्रत पाले, टाले सगला दोष जी। . चारित्र सुं लयलीन रहे निति, चित मा सदा संतोष जी ॥सु२॥ जीव सहुना जे छे पीहर, पीडइ नहीं पटकाय जी। आप वेदन पर वेदन सरीखी, न हणे न करे घाय जी ॥३सु।। मोह कर्म ने जे वसि न पड्या, नीरागी निर्माय जी। जयणा करता हलुये चाले, पुंजी मूंके पाय जी ॥४सु।। उरहउ परहउ दृष्टि न जोवे, न करे चलतां बात जी । दूषण रहित सूझतउ देखइ, ते ल्यइ पाणी भात जी ॥५सु।। भूख तृपा पीड्या दुख भीड्या, छूटे जउ निज प्राणजी। तउ पिणि असुद्व आहार न वांछइ, जिनवर आणप्रमाणजी।सुा अरस निरस आहार गवेसइ, सरस तणी नहीं चाहि जी। . • इम करता जउ सरस मिलइ तौ, हरसे नही मनमांहि जी ॥७॥ सीतकाल सीतइ तन धूजइ, उन्हाले रवि ताप जी। विकट परिसह घट अहीयासे, नाणइ मन संताप जी ।।८।। मारे कूटे करें उपद्रव, कोइ कलंक धइ सीसजी। निज कृत कर्म तणा फल जाणे, पिणि मन नाणइ रीस जीहा '
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy