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जिनहर्य ग्रंथावली धृत परि पाणी वावरे जी, वीहइ करतउ पाप । सासायक व्रत पोषधइजी, टालइ भवना ताप ॥८म| सुगुरु सुधर्म सुदेवनीजी, सेवा भगति सदीय । धर्मशास्त्र सुणताँ थकां जी, समझइ कोमल जीव ॥६भा मास मास ने आंतरे जी, कुश अग्र भंजे वाल। कला न पहुचइ सोलिमी जी, श्री जिन धरम विशाला॥१०॥ श्री जिन धर्म पुरी दीये जी, चउगति भूमण मिथ्यात । इम जिनहरख विचारिये जी, वीजउ तत्त्व विख्यात ॥११भा।
ढाल-मधुर आज रहो रे जन चलो एहनी॥ श्री जिन धरम आराहिये, करि निज समकित सुद्ध । भवियण तप जप करिया कीधली, लेखे पड़े सहु किद्ध भ०१श्री।। कुगुरु कुदेव कुधर्म ने, परिहरिये विष जेम ।भा । सुगुरु सुदेव सुधर्म ने, ग्रहिये अमृत तेम ॥२ श्री ।। . . कंचन कसि सि लीजिए, नाणं लीजे परीख |भा। देव धर्म गुरु जोइने, आदरीये सुणी सीख ।भ ३श्री॥ ,
मूल धर्म नुं जिन का, समकित सुरतरु एह भा - . "भव भव सुख समकित थकी, समकित सुं धरि नेह ।भा४श्री। सतरे छत्रीसे समे, नभ सुदि दसमी दीस भा। . -- समकित-सतरी ए रची, पुर पाटण सुजगीस भा|श्री।। . भणिज्यो गणिज्यो भावसू, लहीस्यो अविचल श्रेय ।भा . शांतिहरख वाचक तणुं, कहे जिनहरख - विनेय भाश्री।।
॥इति समकित सितरी समाप्त।