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आत्म प्रबोध
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पांचे इन्द्री केरा विषय न सेवीये रे, विषय कह्या किंपाक । धुरि मीठाए लोगे अति रलीयामणा रे, कडूओ जास विपाक ॥३॥ अगनि समान कह्या भगवंते आकरा रे, च्यारे कटुक कषोय । तपजप संयम धर्म कीयउ सहु नीगमइ रे, गुण गौरव सहु जाय ।४। झाझी निद्रा नयणे आवे जेहनेर, न लहे कथा सवाद । भलउ न दीसे बइठउ लोकसभा विचे रे, चइथउ एह प्रमाद।।५।। विकथा करता फोकट पाप विधारिये, लहिये अनरथ दंड । च्यारे गतिमा भमे निरंतर जीवडउरे, एहसुप्रीतिम मंडि।६।। एह प्रमाद करता भवसायर पड़इरे, एहनी संगति वारि ।' मन इच्छित फलपामे इणिभवपरभवइंर , कहे जिनहरखविचारि।७
आत्मप्रबोध सज्झाय
ढाल-विणजारानी सुणि प्राणी रे, तुझ कहु एक बात, वात हिया मइं धारिजे।।सु॥ आऊख दिन राति, अंजलि नीर विचारिजे ॥१सु।। आरज कुल अवतार, पाम्युं पुन्य उदय करी ॥सु।। खोवे कांइ गमार, विषय प्रमाद समाचरी ॥रसु।। इणि संसार मझारि, जनम मरण ना दुख घणी ॥सु॥ तई भोगव्या अपार, नरग निगोद तिर्यचना ॥३सु।। वसीअउ गरभावास, असुचि तिहां तइ आयु ॥सु॥ वेदन सही नव मास, योनि संकट मां नीसर्यु ॥४सु।।