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नंदिषेण मुनि स्वाध्याय क्रीडा करता हो दीठी मावडी, ऐ ऐ मोह विकार। मारइ मोहइ होएह विकल थइ, धिग धिग मुझ अवतार को।। आवी पाए हो लागउ, देखी मन मायनइ आव्युरे ठाम । एस्यूं कीधुरे पूत वलाइल्यं, किम तजीये व्रत आम ॥१०को।। चारित्र न पलइ हो मई ए मात जी, खरउ कठिण विवहार । घरि घरि भिक्षा हो मांगी नवि सकं, चरित्र खंडानी धार॥११॥ विष पासी नउ हो मरण भलउ का, पिणिन भलउ व्रत भंग । सिलपट उन्ही हो करि आतापना, परिहरि नोरी नउ संग॥१२॥ माडी वयणे हो जाग्यउ जुगतस्यु, तुरत तज्यं घरवास । सूरज किरणे हो ताती सिल थई, व्रत लेई सूतउ उलास ॥१३॥ अगनि प्रसंगे हो जिम मांखण गलइ, तिम परघलीयउ रे अङ्ग। सरणा आपइ हो ऊभी मावडी, म करिसि मोह प्रसंग॥१४ को।। प्राण तजी ने हो ततखिणि पामीयउ, अनुपम अमर विमाण । विषम परीसह होएहवउ जिणि सह्यउ, धन जिनहरख सुजाण॥१५॥
नंदिषेण मुनि स्वाध्याय
ढाल ॥ इतला दिनहु जाणती रे हा ॥ एहनी वहिरण वेला पांगयं रे हां, राजगृह नगर मझारि निंदपेणसाधुजी करम संयोगे आवीयउ रे हां, वेस्या ने घर वार ॥ १२ ॥ करम सुं नही कोइ जोर, सके नहीं चल फोरि । चांपी न सके कोर, करम दीये दुख घोर ॥ नं ।। ऊँचे स्वर आवी करी रे हां, धर्मलाभ मुनि दीध । नं।
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