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जिनहर्ष ग्रन्थावली धन धन रिख मेतारीज, दया तणो प्रतिपाल जी कहै जिनहरख सदा पाय प्रणमें, प्रहसम उठी त्रिकाल जी ॥६॥
इति श्रो मेतारिज मुनि नी सज्झाय काकंदो धन्नर्षि स्वाध्यायः
___ ढाल ॥ नाचे इद्र आणदसु ।। वीर तणी सुणि देसणा, जाण्यु अथिर संसारो रे। सीह तणी परि आदर्य, वयरागे व्रत भारो रे ॥१॥ वंदु मुनीवर भाव सं, धन धन्नउ अणगारो रे। छठि-छठि नइ पारणइ, आंबिल ऊझित आहारो रे ।। २ ।। देह खेह सम जाणि नइ, तप तपे आकरो जोरो रे। कठिण परीसह जे सहइ, जीपण करस कठोरो रे ।। ३ ।। साप कलेवर खोखलउ, सूकं तेहवउ सरीरो रे। हाड हिंडंता खडखडे, मंदरगिरि जिम धीरो रे॥ ४ ॥ वीर नइ श्रणिक पूछीयउ, चउदह सहस मझारो रे। आज अधिक कुण मुनिवरू, तंपगुण दुक्कर कारो रे ।। ५ ।। धन्नउ वीर चखाणीयउ, पाय वंदण थयउ कोडो रे । राय नइ रिषि साम्हु मिल्यु, वांदइ बेकर जोड़ो रे ॥ ६ ॥ श्रेणिकराय गुण वरणवइ, धन-धन तुझ अवतारो रे । निज मुख वीर प्रसंसीयउ, तुझ समउ नही को संसारो रे ।।७।। नव मास चारित्र पालियर, धरिय संलेहण ध्यानो रे। एका अवतारी थयुं, लघु अनुत्तर थानो रे ॥ ८ ॥
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