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________________ हरिकेसी मुनि स्वाध्याय जीहो सुमुख कीधीस्तवना सुणी, जीहो नाण्यउ मन अहंकारा॥२॥ जीहो दुष्ट वयण दुर्मुख तणा, जीहो सांभलि जाग्यउ क्रोध । जीहो प्रेम पुत्र उपरि धर्य, जीहो मेल्या सहु निज जोध ।।३।। जीहो अरिदल सं सनमख थयउ. जीहो मनसं करड संग्राम । जी हो श्रेणिक कहे प्रभो उपजइ, जी हो प्रसनचंद किणि ठाम ॥४॥ जीहो सातमी, सुरगति अनुक्रमई, जी हो वाल्यउ मन ततकाल । जी हो वात करंतां ऊपनउ, जी हो केवल झाक झमाल ॥ना। जी हो सुभ असुभ दल मेलवइ, जी हो गरुअउ मन व्यापार । जी हो मन ही मेल्हइ सातमी, जी हो मनही मुगति मझारि॥६॥ जी हो जोवउ ए गुण भावना, जी हो तोडी नाख्या कर्म । जी हो प्रसनचंद मुगते गया, जी हो लह्या जिनहरख सुशर्म ॥७॥ हरिकेसी मुनि स्वाध्याय ढाल|जीरे जीरे सामि समोसर्या ॥एहनी हरिकेसी मुनि चंदिये, जोडी कर नितमेवो रे ।' तिंदुक बासी देवता, जेहनी करइ सेवो रे ॥१॥ पंच समिति तीन गुपतीसं, इरज्या सोधंतोरे । ब्राह्मण वाडइ आवीयु, मासखमणने अंतो रे ॥रह।। रूप कुरूप कालउ घणु, तप काया सोपी रे । तन मइलउ मन उजलउ, जेहनी करणी चोखी रे ॥३ह।। फाटा पहिर्या कलपड़ा, राखेवा लाजो रे । ब्राह्मण याग करे तिहां, आन्यु भिक्षा काजो रे ॥४॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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