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जिनहर्प ग्रंथावली जोड़े सयण तिया जसा, नमिया करै निहाल ॥४०॥ कुशल क्षेम कल्याण इह, पदकज तुज प्रसाद । सुक्ख जसा संदेशड़े, निसुणि जेम मृगनाद ।।४।। विरह थियां वाल्हां तणौ, कारिस लागी काई। मेलू विण मिलियां जसा, जम्मारो क्युं जाई ॥४२॥ सजन मिलि निज सेवकां, दिल दीदार दिखाई। तन मन तो ऊपर जसा, सदकै करूं सदाई ॥४३ सयणा मेलो साइंयां, दियै न चिरह म देह । जो विरही राखै जसा, मो पहिली मारेह ॥४४॥ प्रीत म करि मन माहरा, करै तो काचौ काइ। काचा मिणिया कोच रा, जसराज भांजे जाई ॥४॥
सोरठाधन पारेवां प्रीति, प्यारी विण न रहै पलक । ए मानवियां रीति, एखी जसा न एहडी ॥४६॥ एक पखीणि अंग, प्रीति कियां पछताइजे। दीपक देखि पतंग, जस बलि राख हुवै जसा ॥४७॥ साजनियां संसार, जो कीजै तौ जोयनै । नेह निवाहणहार, जसा न चिरचे जीवतां ॥४८॥ दीह दुहेलौ जाइ, निस नीसासै नीगमं । दखियां देखी दाय, आवै तो आवै जसा ॥४६॥