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जिनहर्प ग्रन्थावली
जाके आछे तीछे नयण, आछे ही रसीले वयण चातुरी ही आछी जाकी, आछउ गोरउ गात है। । आछी ही चलत चाल,, आछे ही कपोल गाल; . आछे ही अधर लाल, आछी आछी बात है। .. आछो ही दखिण चीर, आछी कंचुक वोचि हीर; आछी ही पहिर सारी, आछी ही कहातु है। - आछी ही पायल वाजइ, आछी घुघराली छाजह, , 'जसराज गोरी भोरी, आछी आछी जातु है ॥शा
दुर्जन उपरि पुनः सवैया:नयन के देखो नाहिं, कानन कुं सुनी नाहि. . ऐसी बनाय कहै, सुणी हुँ खीजिये। जाकै मेली मति गति, अति है कठोर चित्तः क्रोधन को गेह तासु, कवल न पतीजिए। जाका मन में है खोट, हरदे है कपोट का खोट; .
ऐसी ही बनाय कहै, देख्यां पतीजिए। १ . सुनो मेरे यार, -'जिनहरप', कहै विचार;
ऐमो दुर्जन ताको, कारो मुंह कीजिये ॥१॥जात छुटे भय प्राण अमानत, ऐसो हलाहल भी विप पीजे । केसरी सीह अवीह उमंग सुं, जाइ सनमुख साह भी लीजे। जाके बदन वसै विष झाल, भुजंगम झालिके चुम्बन लीजें। सजनी सीख सुनो 'जसराज' के संग कुमाणस को नहु कीजे र