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जिनहर्प ग्रंथावली
॥ छंद त्रोटक ।। गहगट्ट सदा नर गीत गुणे, थिर थानिक थानिक जस्स थुणे महिमा नव खंड अखंड महं, गह पूरत मत्त मसत्त गहं ।।शा झिग मिग निरमल नूर झिगै, आदीत दुवादस तेज अगें। वपु रूप दण्यो कहि केम कहाँ, लख लोक तुमीण पास लहां ॥६॥ 'गज सीस अधीस गजे गहटा, पूरंत पटा झरता पहटा,
घणघोर सजोर असाढ़ घटा, लहकंत इसा सिरसाम लटा ॥७॥ 'भणि भाल अरद्ध ससी भलके, कृपनंग भुयंग गले किलके । दीरग्ध अरग्घ इको दशनं, रस वाणि सुखांणि वदे रसनं ॥८॥ सुंडाल सचाल जडाल जडा, धमचाल सवाल उथेल धड़ा। मछराल वहाल अचाल मतं, बुधियाल छंछाल रसाल वत।६।। 'पेटाल कुंदाल भखै प्रधलं, सुकमाल वडाल नमै सकलं । किरणाल कृपाल तपै कमलं, उरमाल फूलाल वसै अमलं ॥१०॥ चढि मृपक वाहण पंथ चले, त्रयलोक अधार अपाण तले। 'फरसी ग्रह सत्रव फंफरीयं, करि प्राण केवाण वसं करीयं ॥११॥ अनमी अरिनांमण जाय अडे, प्रभु कोप करै सिर रीठ पडै ।महिपति सुरासुर आन मनै, कुमुखै जिण ऊपर कीध कनै ॥१२॥ श्रीयपति तणी जदि जान सझे, गड़त मदोमत गोड गजे। इय पाखरीया हणणंत हठी, करि आरम्भ पारन कोइ कठी॥१३॥ स्थ पायक लायक रूकहथा, तकि तीख अणी मिल तान तथा ।