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________________ ३८८ जिनहर्प प्रथावली हीयड त सालइ साल नी परि, कहु केही बात रे ।। इणि रितई पावस जीव नहीं बसि, मिलर बांह पसारि रे। मुझ साथि भोग वियोग टाली, भोगवट भरतार रे । एचडउ हठ न कीजे स्वामि, प्रीति पूरवि पालि रे । मुझ पंच वाण प्रहार लागै, गखि राखि दयाल रे॥११॥ एहनउ हीयडउ वन सरीखउ, मिलइ न अन्तर खोलि रे । चांद्रणी रयणी दुख दइणी, कामिणी विणि कंत रे।' बहु काम व्यापे हीयउ कापड़, कापि दुख गुणवंत रे ।। बहु गया वासर रह्या थोड़ा, निटर हिवे हठ छोड़ि रे । ए गयं जावन आविस्य नहीं, कहु ,वकर जाड़ि र॥ सिसि किरण लागइ वाण सरिखा, वाण मइं न खमाइ रे। राखइत प्रीतम राखि तं मुझ, प्राण नीसरी जाइ रे । नवरंग सेज विलास कीज, टालि विरह वियोग रे। तुं कंत हुँ गुणवंत नारी, मिल्यो ए संयोग रे ।।१२।। कातीत कंता आवीयउ, बहि गयउ हिवे चउमासि रे। मुझ वयण चित न भेदीयउ, भागउ त मन वेसास रे।। दीवा करे घरि-घरि दीवाली, करे परम उच्छाह रे। । मुझ नाह माण न मेल्हियउ, तन दीयउ होली दाह रे।। - निज सखी मेली तानः भेली, करे निरुपम नृत्य रे। कंसाल ताल मृदंग धप मप, रीझवे प्रिय चित्त रे ।। . थे। शेइ , उचरई मुखि, . झिझिकि झझं झझरा ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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