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श्री थूलभद्र बारहमास
३८५ इणि परइं होली रमइ टोली, पहिर चोली सोहती। निज कंत दोली फिरह भोली, मानिनी मन मोहती ॥ मुझ प्राणनाथ : मनाई ल्यावउ, खेलीये मन रंग रे।। निज नाथः साथि विलास कीज, रागरंग सुरंग रे ॥५॥ चतुर चैत्र सुहामणउ, आयउ राज वसंत . रे। तरु पान पाकापडी थाका, नवा पल्लव ढुंत रे।। दव तणा दाधा ‘जह तरुवर, तांह माथइ फूल रे । हुनाह विरह वियोग दाधी, देखि माहरउ सूल रे॥ बहु मूल भूषण अंग ‘दूषण, पहिरीया न सुहाय रे। पटकूल चरणा चीर वरणा, फरस कंटक थाय रे ।' कुण नाह विणि सिणगार देखइ, रीझबुं हुं कासि रे। किणि साथ मन नी वात करीये, नही प्रीतम पासि ।। कोई कहइ प्रीतम आवइ तउ, दीउ नवसर हार रे।। वली कनक जीभ घड़ाइ आपं, वली लाख दीनार रे ॥६॥ सहु सुणउ महीयां कहइ कोस्या, आवीयउ वैसाख रे । वनखंड फलीया सयल तरुअर, फली दाडिम द्राक्षरे। ' सहकार 'बइठी कोकिला, वोलत. मधुरइ सादरे। पापिणी पिउ पिउ संभारइ, बधइ मन विसवाद रे।। मुझ अंग योवन बाग फुल्यउ, माण गर वर कंत रे । ते गयउ रस न लेणहारउ, सवल मनमें चिंत रे ॥ मन चिंत केहने कहुं सहीयां, दीह जिमतिम जाइ रे।