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________________ जिनहर्प ग्रथावली लोकांतक सुर आवीया ए, प्रभु नइ कहइ वाणी ।। समता रस संपूरीयउ ए, मन निश्चल कीघउ । मगसिर सुदि इग्यारसई ए, जगगुरु व्रत लीधउ॥ ४ ॥ धीरम मेरु तणी परई ए, सायर गंभीर । कर्म तणी सेना भणी ए, हणिवा महावीर ।। कर्म च्यारि जे घातीया ए, ते स्वामि खपान्या । केवलज्ञान लघउ प्रभु ए, सुर नर तिहां आव्या ॥ ५ ॥ समवसरण रचना करीए, जिन बइठा सोहइ । धरम तणी देसण दीयइ ए, सुणता मन मोहइ ॥ संघ चतुर्विध थापीयउ ए, गुणमणि भंडार । आऊखं पूरण करी ए, पुहुता मुगति मझार ॥ ६ ॥ ॥ ढाल २ अढीया नी ॥ एकवीसमुं जिनचंद, कल्याणक भणुंए, बीजउ संथुर्पु ए ॥७॥ मिथिला नगरी राय, विजय नरेस कहवाय । वप्रा रागिणी ए, मोटा भागिनी ए॥ ८ ॥ चउदह सुपन लहाय, हीयडइ हरख न माय । जिनवर जनमीया ए, सुर उच्छव कीया ए॥६॥ जोवन पहुता जाम, प्रभुजी परण्या ताम । राज्य पदवी लही ए, सुख भोगवइ सही ए॥ १० ॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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