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________________ चतुर्थ मंगल गीत ... . चतुर्थ मंगल गीतं ढाल-विमलाचल सिर तिलउ एहनी ॥ चउथउ मंगल निति नमुं, जिनवर भापित, धर्म । विनय दया जिन आगन्या, जेहथी त्रूटइ कर्म ॥१०॥ कलपवृक्ष चिंतामणि, कामधेनु कामकुंभ । पुन्य योगई ए पांमीये, पिणि जिनधरम दुलंभ ॥२च०॥ जेहथी सुरनर संपदा, लहीये सुख भरपूर । सी अधिकाई एहनी, थायइ मुगति हजूर ॥३०॥ जीव तर्या तरिस्ये वली, अतीत अनागत काल । वर्तमान कालई तिरइ, धर्म थकी तत्काल ॥४च०॥ त्रिकरण सुध आराधिस्ये, फलिस्यइ वंछित तास ।' चउडुं मंगल चिरजयउ, कहइ जिनहरख उलास ॥५च०॥ इति चतुर्थ मंगल गीतं ॥४॥ . ऋषि बत्तीसी - अष्टापद श्री आदि जिणंद, चंपा . वासपूज जिनचंद । . वाचा मुगति गया महावीर, अरिहनेमि गिरनार सधीर ॥१॥ बीस तिथंकर धरीय उमेद, जनम मरण भव बंधण छेद । श्री समेतसिखर सिध थया, बीस जिणेसर मुगतें गया ॥२॥ जंवूदी जिन चौवीस, धाइसंडै . अडसठि ईस।। अरध पुष्कर अडसठि कहेस, सत्तरिसय जिन भाव नमेस ॥३॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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