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________________ ३३३ श्री जिनहर्ष ग्रन्यावली अंतरजामी अंतर नहह जी, त्रिभुवन भासतर भाण ॥१सा|| कनक सतेज कमवट कस्यड जी, नेहबउ वरण शरीर । लावतां पाप भव भव तणा जी. जाइ जिम थल थी नीर ।।२सा! धन्य ने नयण चकांग्डाजी, पेखीयह प्रभु मुख चंद। जनम मफल निज की यह नी, रोपीयह पुण्यतन कंद ॥सा|| स्वामि गुण वागुरा विम्तरी जी, भविक मन मृग पड़इ पास जनम मग्ण तुणा पास थी जी, नीमरइ ताहरा दास ॥४सा।। समवमग्ण मध्य वहमिनह जी, मालपकौसक राग । दसणा मधुर सुर उपदिसइ जी, जे मुणइ तेहनउ भाग ॥५सा।। दुःख सहुँ च्यारि गति मां भम जी, सेवत काज अकाज । जाइज्यो रिदय विचारी नइ जी, ते प्रभु केहनइ लाज ||सा।। माहिब लाभ न कीयउ तदा जी, सह भणी आपतां दान | नाथ अनाथ तुमचह नथी जी, घउ मुझ निर्मल ज्ञान {१७सा।। कारिमा मुख तणइ कारणइ जी, राचि रह्या मन मृढ । ताहरी भगति नवि आदरइ जी, पड़या अग्यान नी रूढ ।।८साा पांचमह काल इणि भरतमा जी, नवि मिलइ केवली कोइ । म्वामी तुम्हें पिणि वेगला जी, किम मन धीरज होइ ॥६सा।। " मन तणी बात किणिनह कहुं जी, तेहवउ को नही जाण । जिणि तिणि आगलि दाखतांजी, लोक हासी घरि हाणि ॥१०॥ भव भव मांहि भमंता थकां जी, कीधला करम कठोर । दाखवं स्या तुम्ह आगलइ जी, पग पग ताहरउ चोर ॥११सा॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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