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श्री महावीर स्तवन
३१७ सुहणाही मई ताहरउ जी, संभारु नही नाम रे ।। १०६ जि० ॥ मुगध लोक ठगवा भणी जो, करूं अनेक प्रपंच । 'कूड़ कपट बहु केलवी जी, पाप तणउ करूंसंच रे ।।मु०१० जि०॥ मन चंचल वसि नवि रहइ जी, राचइ रमणी रूप । काम विटंबण सी कहुँ जी, पडिसं दुरगति कूपरे मु०११जि०॥ किसा कई गुण माहरा जी, किसा कहु अपवाद । जिम जिम संभारु हीयईजी, तिम वाधइ विषवाद रे।।मु०१२जि।। गुरुआ ते सवि लेखवइ जी, निगुण साहिव नी छोति । नीच तणइ पिणि मंदिरइरे, चंद न टालइ जोति रे।।मु०१३जि०॥ निगुणउ पिणि ताहरउ जी, नाम धराउंदास । कृपा करी मुझ ऊपरइजी, पूरउ मन नी आस रे।।मु०१४जि०॥ पापी जाणी मुझभणी जी, मत मुंकउ रे निरास । विप हलाहल आदयों जी, ईश्वर न तजइ तासरे।।मु०१५जि० ॥ उत्तम गुणकारी हुवइ जी, स्वास्थ बिना रे सुजाण । करसण सींचइ मर भरइ जी, मेह न मांगइ दाण रे।।मु०१६जि०॥ तुं उपगारी गुण निलउ जी, तु सेवक प्रतिपाल । तुं समरथ सुख पूरिवा जी, करि माहारी संभालि रे।मु०१७जि०॥ तुझनइ स्युं कहियइ घणुं जी, तूं सहु वाते जाण । मुझनइ थाज्यो साहिबाजी, भव भव ताहरीआण रे।।मु०१८जि०॥ सिद्धारथ नृप कुल तिलउ जी, त्रिसला राणी नंद । कहइ जिनहरख निवाजिज्यो जी, देज्यो परमानंद रे।मु०१६जि।