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श्री जिनहर्प ग्रंथावली फल फूल आहारी दुद्धाधारी, अल्प आहार लियंदा है। सब भेद सन्यासी रहे उदासी, अविनासी ध्यावंदा है। दिसी च्यारां दीठी वलै अंगीठी, सूरज ताप तपंदा है ॥३॥ महिमा बद्धवारी सब नर नारी, जाक आय नमंदा है। ऐसी सण वत्तां धरिय उकत्तां, पुत्तां पास जिनंदा है। वामादे अक्खे कुणतो पक्खै, मेरा ईस पूरंदा है। तिहां चालो पुत्तां जिहां अवधत्तां, जोगारंभ जगदा है|४|| जननी मन आसा पूरण पासा, ऐरापति समंदा है। गल घुग्घरमाला जाण हेमाला, दंताला ओपंदा है । वर वीर घंटाला मद मतवाला, झोलाले झलकंदा है। पंचरंगी पक्खर सझी सक्खर, ढालां सुं ढलकंदा है ॥ ५ ॥
धतकारे धत्ता मत्ता अंकुस, मावत शीस दियंदाहै। __गंगा तट आये खड़े रहाए, प्रभु ज्ञानी अक्खंदा है।
रे रे अभिमानी तप अज्ञानो, पावक जीव जलंदा है। तिहां फाड़ दुफाड दिखाले लकड़, वेड' फणधर नागंदा है ॥६॥ नवकार सुणाया सुर पद पाया, तापस जस घटदा है। तिण किया नियाणा तप खजाणा, कोडी सट्टे वेचिंदा है। हुय के क्रोधातुर आतुर सो, कमठासुर धर उपजंदा है । अश्वसेन सुतन महाराज विषयदुख, जाणत आप तजंदा है ॥७॥ पंचमुट्ठि लोच किया आलोच, मनसू सोच अफंदा है।
१ नागण अर नागिंदाहै, २ निश्चल ध्यान धरंदा है। .