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श्री जिनहर्प ग्रंथावली कदे उपजंत न कोइ कलेस, नमो फलबद्धीनाथ नरेस ॥३२।। खिजमति मो करिवा मन खंति, रुड़ा हियई निज नाम रहंत कहेस्यो नाथ कह्यो सु करेस, नमो फलबद्धीनाथ नरेस ॥३२॥ थरकि भमन्त रहयो हिच थाकि, तरै तुझ पाये आयो ताकि तिराविस तौ भव सिंधु तरेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस॥३४॥ तुम्हींणो दास वंदो हुँ तुज्झ, मठेल म ठेल मठेल पगांहु मुझ धणी उर पंकज मध्य धरेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥३५॥ खम्या दुख कोडि अम्हां मैं खोडि, बड़ा हिव साहिब दुख विछोड़ि पुणां तो आगलि कीजे पेस, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥३६॥ कलस-नमोनिरंजण नाथ, नमो फलबद्धि नायक
नमो नमो निरलेप, देव सुख सपति दायक ॥ नमो कलियुग नूर, नमो आतम अविनासी
नील वरण तन नमो, नमो विध जाण दिलासी जगास निवारण नित नमो, नमो सांमि सुप्रसन्न मुदा 'जिनहर्प' नमो श्री पास जिन, महाराज प्रणमु मुदा ॥३७॥ कीरति कहै स कोय, देस परदेस दिवाजे । नवे खंड निज नाम, भूख प्रणमतां भाजै॥ हय गय पायक हसम, महिल मन्दिर मृग नैणी । नीसाणां सिर निहस, देव एहि रिद्ध दैणी ।
भंडार चार भरिया भला, कुमणा मन न रहै किसी। ___जिनहरख' तुम्ह फलवद्धि विण इण कलियुग महिमा इसी ॥३८॥