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श्री जिनहर्प ग्रन्थावली इला मझि एकल मल्ल अवीह, न भृत न देत न लोपै लीह । निले फण ओपे सात नगेस, नमो फलवद्धीय नाथ नरेस ॥१२॥ अहो अठ कर्स जड़ा उपाडि, विधंसे नाखि विभाडि विभाड़ि। दीपंत लयो ते ज्ञान दिणेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१३॥ तरै कृत देवे वा तयोर, कनक्क रजत्त रतन्न किंवार । दुवादश परपद देविहि देवेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१४॥ चतुर्विध संघ तटै थिर थापि, उभै धम भाख्यो आपो आप । खयंकर पातिक नांख्यो खेस, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥१५॥ विहम हुवै तें कीधा वेद, भला भल तेंहिज जाण्यां भेद । कपाली तूंहिज तूं रिक्षीकेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१६|| जगाड्या लाख चौरासी जीव, समाप्यां त्यां सुख दुःख सदीय । रमे जग मांहि निरंजण रेस, नमो फलवद्धीय नाथ नरेस ॥१७॥ प्रगट किया ते पातिक पुन्न, दुणी में तासु तणा फल दुन्न । कठोर दोभाग सोभाग कहेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१८॥ थंभ्यो असमाण प्रभू विण थंभ, इला आधार न कोई अचंब । सहु नर लोक उपाय सुरेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१६॥ उपावे आप खपावे आप, प्रमेसर कोइ न लागै पाप । गुन्हा आतम्म किया न गिणेश, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥१०॥ नमो ठग मूरति नाथ त्रिलेप, लगै नही तुझनै कोइ लेप । आदेश आदेस आदेस आदेस, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥२१॥