________________
२५८
श्री जिनहर्प ग्रन्थावली सम्मेतशिखर पार्श्व जिन स्तवन तुहि नमो नमो सम्मेतशिखर गिरि । तुहि नमो नमो अष्टापद गिरि। अष्टापद आदेसर सिद्धा, वासुपुज्य चंपापुरी । नेम गया गिरनार मॉ मुगते, वीर पावन पावापुरी । तु० १ वीसे ट्रेके वीस जिनेसर, सीधा अणसण आदरी । जोति सरूप हुआ जगदीसर, अष्ट करम नों क्षय करी । तु०२ पच्छम दिस सेतुंजे तीरथ, पूरव सम्मेत शिखर गिरी । तु० मोक्षनगर के दोय दरवाजा, भन्यजीव रह्या संचरी । ३ तु० जग व्यापक जिन जय-जय साहब, पाप संताप काटण छुरी तु० मोटो तीरथ मोटी महिमा, गुण गावत है सुरा सुरी । ४ तु० विपम पहाड़ सुझाड़ ही चिहुँ दिस, चोर चरड़ रह्या संचरी । तु० भयकर इंगर भोम डरावत, देखत देही थरहरी । ५ तु० संवत् सतरेस चोमाले, चैत्र सुदी चौथे करी । तु० । कहे जिनहरख सो वीस टूके, भाव सुचइत-वंदन करी । ६ तु० तुही नमो २ सम्मेतशिखर गिरी,
इति सम्मेत शिखरजी रो तवन संपूर्णम्
फलवी पार्श्वनाथ वृहदस्तवन (छंद) जपि जीहा सरसति सुरराणी, वचन विलास विमल ब्रह्माणी देव सकल श्री पुरसांदाणी, वदां कित्ति दे अविरल वांणी ॥१॥