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________________ २२४ जिनहर्ष प्रन्थावली अवगुण ऊपर गुण करै हो, ते विरला संसार ॥ ५ ॥ मुझ पातिक दूरै हरौ हो, तुझ विण अवर न कोइ। । सिखरां जलधर वाहिरौ हो, निरमल कहु किम होइ ॥६॥ दरसण दीजै सामला हो, पुरसांदाणी पास । सेवक सुखिया कीजिये हो, कहै जिनहरख अरदास ॥७॥ ॥ इति श्री पार्श्वनाथ स्तवन ॥ पार्श्वनाथ स्तवन राग काल्हरो माहरा मन नी बातड़ी जी तुम्ह आगल कहुँ पास जी । सुसनेही साहिब म्हारी आस पूरौ जी। हुँ तो सेवक ताहरौजी, दरसण लील विलास जी ॥१॥ जगगुरु तुम्ह सुं प्रीतड़ी नी, नै कीधी हित जांण जी । मत विरचौ मुझ सुं हिवै जी, थे छो गुण नी खांण जी ॥२॥ आसा लुधां माणसां नी, आसा पूरै जेह जी। तेहनी सेवा कीजियै जी, कदेय न दाखे छेह जी ॥३॥ मझ मन लागी मोहणी जी. भव पैलाना काड जी। तूं मांहरै हिय. वसै जी, सेव करूं चित लाइ जी ॥ ४ ॥ वामा अंगज बंदिये जी, आससेण नृपना 'नंद जी। मनमोहन प्रभु सेवतां जी, कहै जिनहरख आणंद जी ॥१॥ ॥ इति श्री पार्श्वनाथ स्तवनं ।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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