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ठोर ही ठोर दिवाली करे,
नर दीपक मन्दिर ज्योति मुहावें ।
हू रे दिवाली करूगी तबे,
मुझ सूं साढा
लेई बोल अमोल
मनमोहन कन्त जवे घरि आवे ॥४॥ ( नेमि राजीमती गीत, पृ० २११ )
( २ )
तीन
रहे
कर
मांहिक मांहिक
वेगली |
मन रली ॥
तिहा करे ।
रह्यां
तिहां
पटरस भोजन सरस सदाई
जोवन रूप अनूप बिन्हेई
आयो पावस मासक अम्बर
ऊमट आयो इन्दक
मेहा
काली कांठल
भबूकै
बाहे वेहूँ पसारि मिलुं पूजे
इण
परे ॥४॥
गाजियौ ।
राजियौ ॥
बिजली ।
रली ॥५॥
( स्यूलिभद्र गीत, पृ० ३६१ )
कवि जिनहर्ष ने प्रेमतत्व का बड़े विस्तार और साथ ही अत्यन्त बारीकी से वर्णन किया है। इस विषय में उनके उद्गार बडे ही मार्मिक है । उनके दोहें तो ऐसे हैं, जो एक बार सुन लेने पर कभी विस्मरण नहीं होते ।
जिनह मुनि थे और सद्धर्म का प्रचार उनका जीवनव्रत था । ऐसी स्थिति में उन्होंने प्रबोधन- गीत भी काफी लिखे हैं और उनमें शान्तरस की