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जिनहर्प ग्रन्थावली राय कहइ ए वेदना जो, सहुनइ सरिखी होई ।। २२ न ॥ हणुं हणाऊँ हुं नहीं जी, केहनइ माहरी देह ।। मुझ काया ना मांस सुजी, त्रिपतउ करिसुएह ॥२३ न । पारेवउ एकिणी दिसइ जी, घाल्यु बाजू माहि । निज काया कापी करी जी, एक दिशि धरइ उछाहि ॥२४ न॥ पारेवउ भारी हुवइ जी, अमिस हलुयउ थाइ। चेलेउ भरीयउ मांस सुजी, तउही ऊँचउ जाइ ॥ २५ न ॥ सहु संकलपी देहड़ीजी, होलावा तुझ काज । त्रिपतउ था भक्षण करी जी, तुझ नइ दीधी आज ।। २६ न ।। मन माहे नृप चिंतवे जी, काया एह 'असार । काजइ आवइ केहनइ जी, मोटउ ए उपगार ॥२७ न ॥ जिम तिम करिनइ राखिवाजी, प्राणी केरा प्राण । मन वचनइ काया करीजी, करुणा धरम प्रमाण ॥२८ न । अवधिज्ञान निहालीयु जी, निरमल मन परिणाम । फटिक तणी परि ऊजलउ जी, सोनइ न हुवइ स्याम ॥३६॥ काया कापइ आपणी जी, निज हाथइ कुण सूर । कुण आवइ पर कारणे जी, निलवट वधतइ तूर ॥३० न॥
__ ढाल ॥ वहिनी रही न सकी तिसइजी | एहनी ४ प्रगट थई कहइ देवता जी, माहरी माया एह। . इन्द्र प्रससा ताहरी जी, कीधी गुण मणि गेह ॥३१॥ सलणारे धन-धन तुझ अवतार ।