SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चन्द्रप्रभु-अनन्त-शान्ति-स्तवन १७५ अविचल सुख नी सीर धीर माहरा दुख कापि ॥५॥ जग पालक तुझ आगलि बालकनी परि बोल । बोलु छुपिणि ते नवि थायइ बोल नी टोल || हासा मेइ पिणि हसतां रमतां कहीयेइ जेह । पोता ना जाणी मावीत्र प्रमाणइ तेह ॥६॥ चंद्रपुरी नयरी महसेन नरेसर तात । लंछण चन्द्र विराजइ राजइ लखणा मात ॥ स्वामि तुम्हारउ देह धनुप एक सउ पंचास । तु ठाकुर भव भव जिन हरख निवाजु दास ॥७॥ अनन्त-प्रभु-स्तवन राग--काफी मैं तेरी प्रीत पिछानी हो प्रभु, मैं तेरी प्रीत पिछानी । मन की बात कही तुझ आगल,तो भी महर न आणी हो प्रभुजी।मैं। हिरदे नाम लिख्यो मति गहिलो, डरपू पीवत पानी हो । आहू न अादर कवहूं पायो, ऐसी मोहबत नानी हो प्रभुजी ॥२॥ सुपने ही से दर्शन नहीं दियो, अव तुटेगी तानी हो। ' कहे जिनहर्ष अनंत प्रभु, मोकु दीजे निज सहनाणी हो ॥३॥ श्री शांतिनाथ-स्तवन ढाल-मुझ हीयडउ हेजालुअउ, एहनी शांति जिणेसर वीनती, सांभलि माहरी रे एक । तुझ विणि किणि आगलि कहुं, तु साहिब सुविवेक ॥१शां।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy